राधास्वामी मत पूर्णतया वैज्ञानिक सिध्दान्तों पर आधारित है तथा इसमे ऐसा कुछ भी मान्य नहीं जो कि प्राकृतिक नियमों सिध्द न किया किया अन्धविश्वास या सुनी-सुनायी बातों के लिये इसमें कोई स्थान नहीं। सैध्दान्तिक कथन माञ इस मत का ध्येय नहीं है वरन् बल, व्यक्ती द्वारा यथाभूत प्रत्यक्षीकरण व आत्मज्ञान पर दिया जाता है।
सच्चे धर्म को लक्ष्य का ज्ञान होना चाहिए, उस लक्ष्य को निश्चित और स्पष्ट रुप से बताना की बतलाना चाहिए प्राप्त करावे और अभ्यासी को लक्ष्य आगे बढ़ावे
प्रथमतः यह जानना चाहिये कि शरीर में सुरत की बैठक कहॉं है। शरीर के विभिन्न भागों के अहसास करने कि योग्यता विभिन्न है। इससे स्पष्ट है कि शरिर में चैतन्यता समान रुप से बटी हुई नहीं है और इसलिये कोई जगह शरीर होना लाज़मी है जहॉं उसका या बैठक हो
शरीर के विभिन्न भागों में उप-केन्द्र भी हैं शरीर जैसे जटिल और पेचीदा यन्ञ की कार्रवाई के लिए ऐसा होना जरुरी ही है सभी यन्ञों में जिनको हम जानते हैं, यही बात पाई जाती है। सारे शरीर में चेतनता समान रुप से व्याप्त नहीं है। यदि एक ही तरह के माध्यमों से सुरत की चेतनता अपने केन्द्र से निःसृत होती तो ऐसा नहीं होता। चेतनता विभिन्न दरजों में फैली हुई है। इसका कारण माध्यमों की विभिन्नता है।
इसलिये यह नितांत आवश्यक है कि सुरत केन्द्र का यानी सुरत की बैठक के स्थान का पता लगाया जावे। सुरत के फैले हुए भास को उस केन्द्र या चक्र पर खींच कर और कर समूह बनाना चाहिए और पिंड में उस ले जाना चाहिए जो रचना के मार्ग बनाना चाहिए जो के मार्ग दूसरा कोई रास्ता नहीं है जिससे होकर सुरत उन सुदूर देशों में पहुच सके जहॉं कि वह जाना चाहती है।
किसी अन्य धर्म में न तो कोई निश्चित लक्ष्य या निशान है और न उसे शरीर में सुरत की बैठक का ज्ञान है
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